विकास किसका, देश या सांप्रदायिकता का? गन्दी राजनीति के उदाहरण
“मंदिर-मस्जिद दाढ़ी चोटी, काट रहे बोटी-बोटी
बांट रहे हैं हम बच्चों को, छीन रहे हैं सबकी रोटी।।”
भारत विश्व में अकेला ऐसा धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां सभी धर्मों का सम्मान और महत्व है। धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह संशोधन सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चित करता है। भारत में हर व्यक्ति को अपने पसन्द के किसी भी धर्म की उपासना, पालन और प्रचार करने का अधिकार है। ऐसे तमाम धार्मिक अधिकार दिए गए हैं, लेकिन कहीं न कहीं धार्मिक अधिकारों का हनन भी हुआ है, जिसे हम सांप्रदायिकता का नाम भी दे सकते हैं।
देश के 1947 में विभाजन पर भड़के दंगों ने कई लाख लोगों के घरों का उजाड़ दिया। लोगों ने इसे अपनी नीयती मानकर मन को समझा लिया क्योंकि देश भारत-पाकिस्तान के रूप में बंट गया था। फिर से आपसी भाइचारे की नींव डलने लगी थी, देश विकास की ओर अग्रसर होने को तैयार था, लेकिन कहते हैं न कि जख्म कभी न कभी तो हरे हो ही जाते हैं, बस उनको कुरेदने वाले शख्स चाहिए।
देश में आजादी के बाद से लेकर अब तक न जाने कितनी बार देश के किसी न किसी हिस्से में किसी न किसी कारण से दंगे हुए हैं। आखिर क्यों होते है दंगे? इसका जवाब हमें पुराने बीते सालों में हुए दंगों से मिलता है। देश में पहला सांप्रदायिक दंगा 1961 में मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ। उसके बाद से आज तक दंगों की झड़ी सी लग गयी-बात चाहे 1969 में गुजरात दंगों की हो, 1984 में सिख विरोधी हिंसा की हो, 1987 में मेरठ के दंगों की हो,1989 में भागलपुर दंगों की हो, 2002 में गुजरात दंगों की हो, 2008 में कंधमाल की हिंसा हो या हाल ही में असम की हो, जिसमें सात दिनों में जारी हिंसा में करीब दो लाख लोगों ने घर छोड़ा या मुजफ्फरनगर दंगों की हो, जो लड़की के साथ छेड़छाड़ के मुद्दे से शुरू हुआ और दंगों के रूप में सामने आया। हाल ही में गोहत्या के मामले पर विवाद शुरू हो गया है। जिसे लेकर दो समुदाय फिर से आमने-सामने हैं। इसकी शुरूआत मुंबई में भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार की ओर से गोश्त की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाने से हुई। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 1932 के रनबीर पैनल कोड के गोमांस प्रतिबन्धित कानून को कड़ाई से लागू करने के निर्देश दिए हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के इस फैसले पर दो महीने तक के लिए रोक लगा दी है।
विकास का एजेंडा हमें 2014 के लोकसभा चुनाव से देखने को मिल रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में तनाव बढ़ता जा रहा है। ‘मेक इन इंडियाÓ,’डिजिटल इंडियाÓ के नारों ने जो जोर विकास के एजेंडे पर दिया था, इस मुद्दे ने इसे पीछे छोड़ दिया है। राजनेता लोगों की संवेदनाओं से खेलकर अपना वोट बैंक तैयार करने में लगे हैं। इसे तब और ज्यादा तूल दिया, जब ग्रेटर नोएडा के दादरी के बिसाहड़ा गांव के व्यक्ति इकलाख की गोमांस रखने और खाने की अफवाह के कारण पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। उसके पुत्र को भी घायल कर दिया। जहां नेता राजनैतिक करियर संवारने के लिए भड़काऊ भाषण दे रहे हैं। वहीं कुछ मुस्लिम नेताओं ने इस विवाद को शांति से खत्म करने की कोशिश और गोकशी पर कानून बनाने के लिए भी सरकार से अपील की है।
राष्ट्र्रपति प्रणब मुखर्जी,प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, और कई नेताओं ने इस हत्या की निंदा की है और सहिष्णुता और सौहार्द की मीठी बोली को देश का गौरव बता भाइचारे का संदेश दिया है। पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू सहित साहित्यकारों ने भी अपनी भावना प्रकट की है।
कई साहित्यकारों ने इस घटना के विरोध में खुद को दिए गए पुरस्कारों को लौटा दिया है। परंतु देश के मीडिया ने इस विवाद को जरूरत से ज्यादा तूल देना शुरु कर दिया है, जो उनकी टीआरपी के लिए सुखद हो सकता है। लेकिन देश के लिए दु:खद बात है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भी इस हत्या की कड़ी निंदा की है और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा हुआ है। यूपीए-2 की सरकार ने दंगा निरोधक कानून को साल 2011 में अन्तिम रूप दे दिया था। इस विधेयक के मसौदे के अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि देश में सांप्रदायिक हिंसा पर नियन्त्रण पाने का एक महत्वपूर्ण, गंभीर व प्रभावी प्रयास होगा। विधेयक राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द को मजबूत करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। यह अभी राज्यसभा में लम्बित है। सभी देश और खुद का विकास चाहते हैं, लेकिन अफवाहों से खेलते देश का नहीं, जहां ये नारा दिया जाए-
“लगाया था जो उसने पेड़ कभी, अब वह फल देने लगा, मुबारक हो हिन्दुस्तान में, अफवाह के नाम पे कत्ल होने लगा”
अब यह निर्णय देश की जनता के साथ ही लोकतंत्र के भावी नेताओं के लिए भी जरूरी हो गया है- विकास किसका, देश या सांप्रदायिकता का?
लेखक: वैशाली पाराशर