दो खुशखबरी:
पहले साक्षी ने कांस्य जीत फिर सिंधु ने रजत, इसके बाद हुई इनामों की बौछार, कितना? ये सोच कर अचम्भा होता है, कोई 5 करोड़ दे रहा है तो कोई 2 करोड़, कोई BMW दे रहा है तो कोई 1000 गज का प्लाट, और साथ में सरकारी नौकरी.
खैर ये अच्छी बात है जिसने देश का नाम रोशन किया हो उन्हें इनाम तो मिलना ही चाहिए.
दो बुरी खबरें:
ओपी जायशा – रियो ओलम्पिक में 42.195 किलोमीटर की मैराथन में कोई पानी देने वाला तक नहीं, 2 घंटे 47.19 सेकंड में रेस ख़त्म करने के बाद बेहोश होकर गिरी. 7 बोतल ग्लूकोज चढाने के बाद होश आया.
क्या ऐसे ही पदक उम्मीद करेगा भारत?
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पूजा कुमारी – पटियाला में राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी पूजा कुमारी ने गरीबी से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली. और अब इस खबर पर लीपापोती होगी, कुछ पैसे दिए जाएंगे और मामला ख़तम. सब कुछ पुराने ढर्रे पर. लेकिन राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी को सरकारी मदद तो छोड़िये पढ़ने के लिए होस्टल तक नहीं मिला, प्राइवेट कमरा लेने में असमर्थ वो रोज किराया खर्च कर कॉलेज भी नहीं आ सकती थी. क्या सोचकर उसने फांसी लगाई होगी?
अब जरा गौर फरमाइए यही रकम अगर खिलाड़ियों को तैयार करने में लगाईं जाती तो शायद नजारा कुछ और होता. खर्च मिल जाता तो पूजा शायद राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बन जाती और शायद इस १३० करोड़ की आबादी वाले देश में हजारों ओलम्पिक खिलाड़ी ऐसे मिल जाते जो पक्का पदकों के अम्बार लगा देते.
जरा नजर डालते हैं कौन सा देश अपने खिलाड़ियों पर कितना खर्च करते हैं:
अमेरिका: खर्च (एक खिलाड़ी पर): 74 करोड़, पदक जीतने पर इनाम: 16 लाख
ब्रिटेन: खर्च (एक खिलाड़ी पर): 48 करोड़, पदक जीतने पर इनाम: कुछ नहीं
चीन: खर्च (एक खिलाड़ी पर): 47 करोड़, पदक जीतने पर इनाम: 24 लाख
भारत: खर्च (सभी 118 खिलाड़ियों पर): 160 करोड़, पदक जीतने पर इनाम: 75 लाख – स्वर्ण पर, 50 लाख – रजत पर, 30 लाख – कांस्य पर
इसके अलावा प्रदेश सरकारें, स्वयंसेवी संगठन और अमीर माननीय अपने स्टार से करोड़ों रुपये पदक जीतने के बाद देते हैं.
सच्चाई: भारत में बहुत सारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी गरीबी में जी रहे हैं.
आशा रॉय – एक समय का खाना भी नसीब नहीं.
सीता साहू – गोलगप्पे बेंच रही है.
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शांति देवी – सब्जियां बेंच रही है.
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शांति – मैडल जीतने के बाद लिंग परीक्षण में फेल – एक नौकरी तक नहीं.
निशा रानी दत्त – घर चलाने के बोझ की वजह से तीरंदाजी छोड़ी.
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नौरी मुंडू – कई राष्ट्रीय मैडल जीतने वाली आज घर चलाने के लिए बच्चों को पढ़ा रही है.
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रश्मिता पात्रा – फुटबॉल अंडर-16 में मैडल जीतने वाली गरीबी की वजह से छोटी सी सुपारी की दूकान चला रही है.
माखन सिंह – मिल्खा सिंह को हारने वाले माखन सिंह पैर टूटने के बाद गरीबी में मर गए.
खासबा दादासाहेब जाधव – 1952 के ओलम्पिक में कोई खर्च नहीं मिला. अपना घर-बार बेंच कर ओलम्पिक में गए और कांस्य जीता.
सरवन सिंह – 1954 के एसियान गेम्स में स्वर्ण जीतने वाले, टैक्सी चलाते रहे और अपना स्वर्ण पदक पैसों की कमी की वजह से बेंच.
मुरलीकांत पेटकर – पैरालिम्पिक्स 1972 में स्वर्ण जीता. लेकिन भारत में 1984 के बाद से रिकार्ड करना शुरू किया गया था इसलिए पेटकर का पदक सरकार के रिकार्ड में नहीं है.
देवेंद्र झाझरिया (विकलांग-एक हाथ नहीं) – पेटकर के बाद दूसरा भारतीय जिसने पैरालिम्पिक्स 2004 में स्वर्ण जीता, पद्म श्री से सम्मानित, लेकिन शायद ही कोई इन्हें जानता हो.
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शंकर लक्ष्मण – 2 ओलम्पिक स्वर्ण विजेता भुखमरी में मर गए.
बुधिया सिंह – उम्र 4 साल में 65 किलोमीटर की दूरी 7 घंटे में नापने वाले बुधिया सिंह दौड़ छोड़कर आज पढ़ाई कर रहे हैं.
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ये लिस्ट बहुत लंबी है. लेकिन इसमें दोष किसका.
इस देश में खिलाड़ी अपने दम पर तैयार होते है. फटे जूते, टूटा धनुष लेकर तैयारी करते खिलाड़ियों को भी रोना आता होगा.
बस इस देश के लोगों को मैडल चाहिए, अगर न भी मिले तो कोई बात नहीं.
सड़क के किनारे खेल दिखाने वाले, ट्रेन में जिम्नास्ट की कलाकारी करते छोटे छोटे बच्चे, सोचने पर मजबूर कर देते हैं, क्या 130 करोड़ के भारत में प्रतिभाओं की कमी है…