स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक मूल्य, सरकार और कॉर्पोरेट का मीडिया पर प्रभाव और आम जनता
क्या मीडिया/पत्रकारिता पर राजनीति या कॉर्पोरेट का कंट्रोल जायज है?
ध्यान रहे, मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है.
इससे पहले की इस प्रश्न पर विचार किया जाए की किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में मीडिया की भूमिका क्या है, यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है की लोकतंत्र का तात्पर्य क्या है. लोकतंत्र से अभिप्राय उस शासन व्यवस्था से है जो जनता के द्वारा, जनता के लिए बनाई गयी हो और जिसके शासक भी जनप्रतिनिधि ही हों.सुनने में तो यह परिभाषा अत्यंत ही सुन्दर लगती है.
“लोकतंत्र” दुनिया में मनुष्य के द्वारा बनाया गया सबसे खूबसूरत और हसीन शब्द है.
विडम्बना यह है की लोकतंत्र के शाब्दिक अर्थ को तो हम जानते हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर उसका विकास हम नहीं कर पाए हैं. किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए विश्वसनीय सूचना माध्यम की आवश्यकता होती है. इसी सूचना माध्यम से सरकार की नीतियों, विभिन्न योजनाओं से अवगत हुआ जा सकता है. ऐसे में मीडिया ही वह सूचना माध्यम है जिससे विश्वसनीय सूचनाएं पायी जा सकती हैं. यह सच है की किसी भी अखबार या मीडिया हाउस को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है लेकिन केवल धन कमाने के लिए अखबार या मीडिया हाउस चलाना ठीक नहीं. नवउदारवादी शक्तियों ने सबसे पहले अपने शिकंजे में इन्हीं मीडिया घरानों को लिया क्यूंकि मीडिया की दखल घर- घर में है और अपना तंत्र फैलाने के लिए मीडिया से ज्यादा और विश्वसनीय माध्यम और क्या हो सकता है. यही वजह है की लगभग हर बड़े कारपोरेट के पास एक खबरिया चैनल है जिन्होंने देश के शीर्षस्थ पत्रकारों को मोटी तनख्वाह देकर खरीद लिया है और इन पत्रकारों की की यह मजबूरी है की अपने मालिकों का यशोगान करें. मीडिया आज अंधविश्वास का पोषक बन गया है. कहाँ तो पत्रकारिता का उत्तरदायित्व समाज में अलख जगाना हुआ करता था, ज्ञान का दीपक जलाना हुआ करता था लेकिन आज हालत यह है की ये समाचार चॅनेल एवं अखबार अंधविश्वासों को फैला रहे हैं.
जिस प्रकार स्टिंग ऑपरेशन चलाकर भ्रष्ट अधिकारियों को मीडिया ने बेनकाब किया है वह भी तारीफ के काबिल है. सांप्रदायिक दंगों के दौरान मीडिया द्वारा अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया जा रहा है लेकिन होना यह भी चाहिए की सांप्रदायिक विचार फैलाने वाले चेहरों को भी बेनकाब किया जाए.
मीडिया को लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए पूरी तरह दोषी नहीं ठहराया जा सकता. अगर देश की गरीबी और भुखमरी की ओर मीडिया की नजर नहीं जाती तो इसका दोषी दर्शक वर्ग भी है जो इसे देखना पसंद नहीं करता. मीडिया ने अगर ‘जो दिखता है, वही बिकता है‘ या ‘ जो बिकता है, वही दिखता है‘ को अपना मूलमंत्र बनाया है तो कहीं न कहीं इसमें देखने वालों की रूचि भी शामिल है. अंततः यह नहीं भूलना चाहिए की लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाकर रखने की जिम्मेदारी केवल मीडिया की ही नहीं बल्कि उस समाज की भी है जो उस देश का नागरिक है.
साभार: विनय कुमार पटेल