दो पत्तों की है मर्म कथा
जो एक डाल से बिछड़ गए |
विपरीत दिशाओं में जाकर
जाने कैसे वे भटक गए |
थे तड़प रहे, सूखें न कहीं |
हर डगर मोड़ पर पूछ रहे
देखा तुमने क्या पात कहीं
खोया मेरी ही तरह कहीं
मेरे जैसा तड़प रहा |
आशा में तिल तिल डूब रहा
आशा में जीवन खोज रहा |
देखो झीलें, थी हरी हरी
मैं, तुम जैसी थी प्रशन्न |
पर आंधी ने कर दिया अलग
हूँ आज निपट निर्धन विपणन |
हम सचमुच कितने भटक गए
इस दुनिया में हम बिखर गए |
आस्तित्व मिटा, खो गए कहीं
या फिर दोनों संग मर गए |
एक साथ खुश थे दो पत्ते
साथ-साथ खिलकर मुस्काये
फल को ढके हुए निज तन से
रखे थे हम उसे छिपाये ||
पर अब तोड़ उसे भी कोई
अलग करेगा उस डाली से |
अब सम्बन्ध न रह जाएगा
फल का उपवन के माली से ||
छोटा सा संसार हमारा
उजड़ गया,अब यही चाह है |
खोजूं जग में फिर साथी को
साहस की बस, यही राह है ||
झील, समुद्रों और हवाओं
मुझे गोद में बिठा घुमाओ |
मैं पत्ती हूँ, मनुज नहीं हूँ,
मेरा खोया मित्र मिलाओ |
हंसना, रोना मुझे न आता,
पर मुझमे भी भाव वही हैं |
नहीं अकेली रह सकती मैं
वह जीने का चाव नहीं है |
अरे पर्वतों, उस पत्ते को
तुम ही कहीं सहारा दे दो |
मिट जाए न अतीत हमारा
तुम ही कहीं किनारा दे दो |
चलते – चलते ताकि पत्तियां
सूख गयी तप कर, मुरझा कर |
एक शिला देखी, आशा से
चिपक गयी उससे फिर जाकर |
किन्तु अलग थी, सोच रही थीं,
बिछड़ा हुआ मित्र मिल जाए |
सबने बहुत पुकारा उसको |
उस तक पहुँच नहीं स्वर पाए |
तभी एक आंधी आई,जो
उदा ले गयी उसे छुपाये |
दो पत्तों की यही कहानी
जो फिर कभी नहीं मिल पाए |
साभार: नीतू सविता